महोबिया जी आज नाराज़ से हैं। खिसियाते हुए मुझे कहने लगे — ‘आधुनिक युग में लोग अपने रोज़मर्रा के जीवन में इतने उलझ-से गए हैं कि देश के प्रति चिंतित होना ही भूल गए हैं। ‘निश्चिंत जनों की बढ़ती आबादी’ एक गंभीर समस्या है जिसे रोकना आवश्यक हो गया है।’
आगे कहने लगे — धन्य हो! नासा और अमेरिकी वैज्ञानिकों का जिन्होंने ‘व्हाट्सएप’ का आविष्कार किया। अमेरिका को तो ‘व्हाट्सएप’ के आविष्कार के लिए अलग से सम्मानित करना चाहिए। यदि व्हाट्सएप ना होता तो कालांतर में लोगों के भीतर से देशप्रेम की भावना का ही विलोपन हो जाता।’
‘क्या बात है? व्हाट्सएप में तुम आजकल देश के प्रति चिंता प्रकट करते नहीं दिखाई पड़ते? कोई समस्या चल रही है क्या?’ — गंभीर भाव से मेरी ओर देखते हुए बोले।
महोबिया जी शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त हैं साथ ही तीन-चार व्हाट्सएप ग्रुपों के एडमिन भी। साथ ही, मैं उनका बड़ा आदर करता हूँ, वह इस कारण कि वे अपना आधे से अधिक समय व्हाट्सएप में देश की चिंता करते हुए बिताते हैं।
महोबिया जी की पूरी बात सुनकर मैंने जवाब में कहा — ‘श्रद्धेय गुरुजी! मेरा तो जीविकोपार्जन की भयावह समस्या से जूझते-जूझते ही दिन निकल जाता है। फ़ुरसत ही नहीं मिलती देश के प्रति चिंता जताने की। कभी-कभी तो बड़ा मलाल होता है कि मैं देश के प्रति अपने नैतिक दायित्वों को पूर्ण नहीं कर पा रहा हूँ।’
‘पड़ोस के खेलाराम जी को ही देखो! कितनी चिंता करते हैं। सुबह से शाम तक मोबाइल हाथ में लेकर व्हाट्सएप पर देश की भर-भर के चिंता करते रहते हैं’ —- पीड़ा के स्वर में मैंने महोबिया जी से कहा।
महोबिया जी गंभीरता से सिर हिलाते हुए मेरी विपदा को समझने का इशारा करते हुए चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे।
एक सुर्र की आवाज़ के बाद उन्होंने अपना मौन तोड़ते हुए कहा — ‘देखो भाई! घरेलू जद्दोजहद किसके पास नहीं है। सभी के पास है, मगर फिर भी देश तो देश है समय तो निकालना ही चाहिए।’ एक सुर्र के बाद वे फिर मौन हो गए।
‘झमेलों के बीच व्हाट्सअप में देश की चिंता करने का समय ही नहीं मिल पाता महोबिया जी! रोज़ सोचता हूँ कि आज चिंता करूँगा, पर कुछ ना कुछ ऐसा घरेलू काम आ जाता है जिसमें उलझकर रह जाता हूँ। अब घरेलू कार्य देखूँ कि व्हाटसैप में देश की चिंता करूँ एक यक्ष प्रश्न बनकर सामने खड़ा हो जाता है’ —- मैंने कहा।
श्रीमती महोबिया जी ने एक कप चाय टेबल पर रख इशारों से मेरी बातों में अपनी मौन सहमति देते हुए वही एक कुर्सी में जम गईं।
एक लंबी सांस के के बाद मैंने आगे कहा — स्वयं को ज़िम्मेदार नागरिक आप तभी सिद्ध कर सकते हैं जब आप व्हाट्सएप में पूरे मनोभाव से चिंतामग्न हों पाएँ। महोबिया साहब! इतने पंचायतों में खुद के लिए भी समय नहीं निकल पाता है। कभी मिला भी तो दिन भर का थका इंसान अपना मनोरंजन करे कि व्हाट्सएप में देश की चिंता! आप ही सोचिए! अब इंसान ख़ुद के लिए भी तो वक़्त निकालेगा ना! देश के विषय में तो कई लोग हैं जो लगातार चिंता ही कर रहे हैं।’ इतना कहकर मैंने भी सूर्र पर ध्यान केंद्रित कर लिया।
कुछ देर की चुप्पी के बाद गंभीर भाव से महोबिया साहब ने जवाब दिया — ‘व्हाट्सएप में देश की चिंता ना कर पाना एक प्रकार से घोर अपराध है, और जो चिंतित नहीं उसे किसी भी दृष्टिकोण में ज़िम्मेदार नागरिक नहीं माना जा सकता।’ आगे समझाइश देते हुए कहने लगे ‘कोई भी सांसारिक बाधा आए या किसी भी प्रकार का घरेलू कार्यों का अवरोध ही क्यों ना हो; एक निष्ठावान नागरिक सदैव व्हाट्सएप में टिप्पणी कर अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करता है। तुम्हारे मित्र खेलाराम को ही ले लो कितनी निष्ठा से देश की चिंता करते हैं। कभी-कभी तो इतनी चिंता कर देते हैं कि उसकी सांस फ़ुल जाती है। एक बार तो डॉक्टर को दिखाने की नौबत आ गई थी। डॉक्टर साहब ने तो उन्हें सख़्त हिदायत दी हुई है कि देश की इतनी चिंता करोगे तो स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा। मगर सच्चे देशभक्त कहाँ किसी की सुनते हैं।‘
‘देश के भीतर कुछ भी होता है अपने स्वास्थ्य को साइड में रख कर व्हाट्सएप में आ जाते हैं और पूरी निष्ठा से देश की चिंता करने लग जाते थे। एक बार तो किसी को झल्ला रहे थे— ‘शर्म करो! तुम्हें तो देश की चिंता करने तक का समय नहीं है। देश ऐसे विकास करेगा?’ उस अज्ञात महानुभाव को खेलाराम जी अपना उदाहरण देते हुए कह रहे थे — ‘मुझे देखो! ऑफिस के काम के बीच भी मैं निष्ठापूर्वक चिंता कर लेता हूँ। सुबह हो, शाम हो या रात, मैं चिंता करने का समय निकाल ही लेता हूँ! मेरे इर्द-गिर्द जितने भी मेरे शुभचिंतक हैं उन्हें तो अचरज होता है कि खेलाराम कैसे इतनी चिंता कर लेता है। हमें तो समय ही नहीं मिल पाता है।’
खेलाराम का उपाख्यान बंद कर महोबिया जी मुझसे अपनी भृकुटी तानते हुए कहने लगे — ‘प्यारे! दुनियाभर की ज़िम्मेदारी उठाओगे तो यही होगा! मुझे देखो! मैं व्हाट्सएप में देश की चिंता करने के अलावा कुछ नहीं करता।’
उनके जवाब को सुन मैं आत्मग्लानि से मरा जा रहा था। बड़ी तीव्र इच्छा थी कि महोबिया जी से आज्ञा मिले तो मैं बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से वहाँ से भाग खड़ा होऊँ।
महोबिया जी की बातें शूल की तरह मेरे स्वार्थी मन को भेद रही थी, मैंने रुँधे गले से पीड़ा साझा करते हुए उनसे कहा — ‘मेरा भी मन करता है महोबिया साहब! टेबल पर पाँव सीधी कर ह्वाट्सऐप में देश के प्रति चिंता जता पाता। काश! कभी तकिये-मसनद लेकर चाय की चुस्की लेते हुए चिंतित हो पाता।’
मन ही मन यह अवसाद भी था कि मैं मेरे मित्र खेलाराम की चिंता का दस फ़ीसदी भी नहीं जता पा रहा हूँ। चाय की चुस्की के बीच भगवान से मौन निवेदन भी कर रहा था — ‘हे जगत्पिता! अहो चिंतामणि! हे एक एक प्राणी की चिंता करने वाले! मुझे भी खेलाराम जैसा सौभाग्य प्रदान कर। मुझे भी निठल्ला बना ताकि देश के प्रति मैं भी अपनी चिंता व्यक्त कर सकूँ।
इतने में, मेरे और भगवान के मौन संवाद को तोड़ते हुए बाहर से एक जानी-पहचानी आवाज़ आई — ‘महोबिया जी चलिए! जल्दी निकलिए भाई! निगम कार्यालय में बजबजाती नाली का प्रतिवेदन देने जाना है।’
महोबिया जी ने कराहते हुए जवाब दिया — मेरे घुटनों में आज ज़रा कुछ ज़्यादा ही दर्द है मिश्रा जी! आप लोग निकलिए! और हाँ! वहाँ जाएँ तो प्रतिवेदन देते वक़्त कुछ तस्वीरे अवश्य उतार लीजिएगा। व्हाट्सएप पर टिप्पणी करने के काम आएगा।’
इतना कह मुझे जाने का अभिवादन कर,
यह कहते हुए अंदर चले गए — इन शालों को और कोई काम नहीं है!
लेखक
रवि बरगाह
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